उत्तराखंड
देवीधुरा का बग्वाल यानि पाषाण युद्ध, जानें मान्यता व लोक कथा, देखें युद्ध का वीडियो भी 👇
रितेश सागर
देवीधुरा। कुमाऊ के चंपावत जिले के देवीधुरा में स्थिति माँ बाराही देवी के मंदिर में श्रावणी पूर्णिमा रक्षाबंधन के दिन बग्वाल अर्थात पाषाण युद्ध खेला जाता है। मान्यता के अनुसार आषाढ़ी मेला श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चार खाम गहड़वाल ,चम्याल ,वालिग और लमगड़िया रक्षाबन्धन के दिन इन चारों खामों के मुखिया सुबह मंदिर आकर देवी की पूजा अर्चना करते हैं और देवी का प्रसाद लेकर अपने गावों में जाकर बितरित करते हैं। उसके बाद इस बग्वाल में स्वेच्छा से भाग लेने वाले जिन्हे द्योका ( देवी को अर्पित ) कहा जाता है। वे नीसाण (ध्वजा ) ढोल नगाड़े शंख घड़ियाल ,गाजे बाजों की ध्वनि के साथ , आत्मरक्षा के लिए छंतोलियां लेकर और हमला करने के लिए गोल पत्थर लेकर माँ वाराही मंदिर परिसर की ओर प्रस्थान करते हैं। इनके प्रस्थान से पहले महिलाएं इनकी आरती करती हैं अक्षत परखती हैं। और महिलाये उन्हें अस्त्र शस्त्र के रूप में खुद द्वारा चुने हुए गोल पत्थर देती हैं। पूरा माहौल युद्धमय होता है। और शकुनाखर (मंगल गीत ) गाकर उन्हें विदा करती हैं। प्राचीन काल की क्षत्राणियों की तरह विजय होकर लौटने की मंगल कामना करती हैं।
द्योका ( पत्थर युद्ध में भाग लेने वाले ) को सांगी पूजन से बग्वाल के संपन्न होने तक कठोर अनुशाशन, व्रत और नियमो का पालन करते है। जैसे -मडुवे की रोटी , मसूर की दाल , मांस , मदिरा ,बहार का खाना ,स्त्रीसंसर्ग आदि का सेवन नहीं करना पड़ता है। वाराही धाम पहुंचने के बाद ये देवी गुफा की परिक्रमा करने के बाद रणक्षेत्र खोलिखाण दूबाचौड़ नामक मैदान के पांच फेरे लेने के बाद अपने पत्थर और छंतोलियों के साथ अपने मोर्चे पर डट जाते हैं। इसमें कई रिश्तेदार एक दूसरे के विरुद्ध योद्धा रूप में खड़े दिखते हैं। इसके बाद युद्ध का उद्घोष होता है सभी योद्धा सतर्क जाते हैं। फिर नियत समय पर पुजारी युद्ध का शंखनाद करके पत्थर युद्ध आरम्भ की घोषणा करते हैं। दोनों तरफ से पहले थोड़ी देर कोरी बग्वाल खेली जाती है। फिर थोड़ी देर में ,छत्रों की आड़ में पत्थर वर्षा प्रारम्भ हो जाती है ,कि उस समय कोई बाहरी शक्ति उनके बीच घुसने की हिम्मत नहीं कर सकती।
इसमें भाग लेने वाले योद्धाओं के अंदर ऐसा जोश ,और उन्माद होता है, उस समय पत्थर के चोट का दर्द भी महसूस नहीं होता। इन धड़ों के बीच होने वाले युद्ध में जब पुजारी को यह अनुमान हो जाता है कि ,लगभग एक आदमी के बराबर रक्त प्रवाह हो गया है। तब वो छत्रक की आड़ लेकर एक हाथ में चवर और शंख लेकर बचता बचाता युद्ध क्षेत्र के मध्य जाकर शंख बजाकर व चवर हिलाकर युद्धविराम की घोषणा करते है। इसके बाद युद्धरत चारों खामे एक दूसरे को उत्सव के सफल समापन पर बधाई देते हैं। और रणक्षेत्र में चोटिल हुए योद्धाओ को प्रशासन द्वारा व्यवस्था किये गए मेडिकल टीम द्वारा उपचार किया जाता है, आजकल सुरक्षा की दृष्टिगत फल व फूलो को युद्ध में शामिल कर लिया गया हैं।इस वर्ष 9 मिनट तक चला बग्वाल युद्ध जिसमें 45 वीर योद्धा चोटिल हुए।
लोक कथाओं के आधार पर माँ वाराही देवी के गणो को तृप्त करने के यहाँ के चारों क्षत्रिय धड़ों में से बारी -बारी से नरबलि देने का प्रावधान तांत्रिकों ने बनवाया था। कहते हैं एक बार चम्याल खाम की वृद्धा की एकलौते पौत्र की बलि देने की बारी आई तो ,वृद्धा अपने वंश के नाश का आभास से दुखी हो गई। उसने माँ वाराही देवी की पिंडी के पास घोर तपस्या करके माँ को खुश कर दिया। माँ ने प्रसन्न होकर बोला , यदि में गणो के लिए एक आदमी के बराबर रक्त की व्यवस्था हो जाय तो वो नरबलि के लिए नहीं बोलेंगी। तब सभी धड़े इस बात पर राजी हो गए कि नरबलि के लिए किसी को नहीं भेजा जायेगा ,बल्कि सब मिलकर एक मनुष्य के बराबर खून अर्पण करेंगे। कहते हैं ,तब से ये परम्परा चली आ रही है।
इस वर्ष सूबे के मुख्यमंत्री अपने निर्धारित समय पर माँ वाराही मंदिर पहुंचकर विधिविधान स्व पूजा अर्चना की व देश व प्रदेश की खुशहाली की कमान की।