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आज होगा उत्तराखंड के कुमाऊं में पाषाण युद्ध, एक दूसरे पर होगी पत्थरो की वर्षा,नर बलि के विकल्प के रूप में बग्वाल की प्रथा

रितेश सागर :

नैनीताल। प्रति वर्ष रक्षाबंधन पर्व पर उत्तराखंड के कुमाऊं में स्थिति एक मंदिर में देवी को प्रसन्न करने के लिए चार गांवों के लोग आस्था के रूप में एक दूसरे पर पत्थर बरसाकर करते है पाषाण युद्ध जिसे बग्वाल कहा जाता है। यह युद्ध किसी दुश्मनी, जमीन के टुकड़े अथवा हार-जीत के लिए नहीं अपितु धार्मिक परंपरा के निर्वहन के लिए होता है। सदियों से खेला जाने वाला यह युद्ध अषाड़ी कौतिक के नाम से भी प्रसिद्ध है।

चंपावत जनपद के पाटी ब्लाक स्थित देवीधुरा का मां ब्रज वाराही धाम पत्थर युद्ध बग्वाल के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध है। बग्वाल हर साल रक्षाबंधन के दिन आयोजित होती है और चार खामों- सात थोकों के लोगों के मध्य खेली जाती है। कुछ लोग इसे कत्यूर शासनकाल से चला आ रहा पारंपरिक त्योहार मानते हैं, जबकि कुछ इसे काली कुमाऊं की प्राचीन संस्कृति से जोड़कर देखते हैं। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में चार खामों के लोगों द्वारा अपनी आराध्य वाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए बारी-बारी से हर वर्ष नर बलि दी जाती थी। किंवदंती के अनुसार एक साल चम्याल खाम की एक वृद्धा के परिवार की नर बलि देने की बारी थी। परिवार में वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित थे। कहा जाता है कि महिला ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां वाराही की स्तुति की। मां वाराही ने वृद्धा को स्वप्न में दर्शन दिया और उसे मंदिर परिसर में चार खामों के बीच बग्वाल खेलने के निर्देश दिए। कहा कि चार खाम के लोग मंदिर परिसर में बग्वाल खेलेंगे और उसमें एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहेगा तो वह प्रसन्न हो जाएंगी। देवी के स्वप्न में कही बात वृद्धा ने गांव के बुजुर्गों को बताई। तब से नर बलि के विकल्प के रूप में बग्वाल की प्रथा शुरू हुई।

 

 

 

गहड़वाल खाम प्रमुख त्रिलोक सिंह बिष्ट, चम्याल खाम प्रमुख गंगा सिंह चम्याल, लमगडिय़ा खाम प्रमुख वीरेंद्र लमगड़िया और वालिक खाम प्रमुख बद्री सिंह बिष्ट बताते हैं कि देवीधुरा बग्वाल मेला पुरातन है। यहां पर्यटन की सुविधाओं का विस्तार होने के बाद आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी है।

 

चार खामों के लोग दो गुटों में खेलते हैं बग्वाल

बग्वाल वाराही मंदिर के प्रांगण खोलीखांण दूबाचौड़ मैदान में खेली जाती है। इसमें चारों खामों के युवक और बुजुर्ग मौजूद रहते हैं। लमगड़िया व बालिक खामों के रणबांकुरे एक तरफ जबकि दूसरी ओर गहड़वाल और चम्याल खाम के योद्धा होते हैं। रक्षाबंधन के दिन सुबह योद्धा वीरोचित वेश में सज-धजकर मंदिर परिसर में आते हैं। मां ब्रज वाराही के जयकारे के साथ मंदिर की परिक्रमा करते हैं। उनके हाथों में फर्रे भी होते हैं। मंदिर के पुजारी का आदेश मिलते ही दोनों और पत्थरों को फेंकने का क्रम शुरू हो जाता है। पत्थरों की मार से लोग घायल हो जाते हैं और उनका रक्त बहने लगता है। एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहने के बाद मंदिर के पुजारी शंखनाद करते हुए चंवर डुलाकर मैदान में प्रवेश करते हैं, जिसके बाद बग्वाल रोक दी जाती है। इसमें कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं होता। अंत में सभी लोग आपस में गले मिलकर एक दूसरे की कुशल क्षेम पूछते हैं।

 

हाई कोर्ट ने वर्ष 2013 में लगाई पत्थर के प्रयोग पर रोक

वर्ष 2012 तक देवीधुरा में पत्थर से ही बग्वाल खेली जाती थी। वर्ष 2013 में नैनीताल हाई कोर्ट ने जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सदियों से चली आ रही इस परंपरा को रोकने के आदेश जारी कर दिए। तब से यहां पत्थरों के बदले फल और फूलों से बग्वाल खेली जा रही है, लेकिन परंपरा का लोप न हो इसके लिए फल और फूलों के साथ बीच-बीच में आंशिक रूप से एक दूसरे पर आज भी पत्थर फेंके जाते हैं।

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